Thursday 10 November 2011

इन्हें देख लूं, तब चलूं

हाय राम! हमारी तो सांस ही फूल गई देश को धक्का देते-देते। इतने बड़े देश को धक्का लगाना आसान काम है क्या? नेता लोग ठंडी छांव में बैठे हैं। वोट देने के लिए जिंदा बचे हम आम आदमी इसे विकास पथ पर ठेल रहे हैं। हम पिछले ६४ वर्षों से इसे विकास की पटरी पर चढ़ा रहे हैं, पर यह हर बार ‘डिरेल’ हो जाता है। 

देश बड़ा है, तो इसे धक्का लगाने वाले भी भारी-भरकम होने चाहिए, मगर हाय री किस्मत! कभी केंद्र में, तो कभी राज्य में कमजोर टाइप की सरकार बन जाती है। कमजोर धक्का देश को आखिर कितना आगे ले जा सकता है? भ्रष्टाचार और काले धन ने देश का वजन और बढ़ा दिया है। नेता जोर नहीं लगाते, जनता के फेफड़े खराब हैं और नौकरशाही की तो भैया बात ही मत करो! लोग गाड़ी से धक्का भी नहीं लगा पाते, क्योंकि हर महीने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ जाते हैं। 

हमारा देश पत्थर की मूर्ति नहीं है, पूरी तरह जीवंत है। वह चाहे तो खुद ही दौड़ सकता है, मगर हम उसे जितना धकिया देते हैं, वह उतना ही बढ़ता है। पसीना पोंछते हुए मैंने अपने देश से कहा, ‘यार इतने विशाल होकर भी खुद क्यों नहीं चलते? भूखी जनता इस उम्मीद से तुम्हें ठेल रही है कि एक दिन तुम उसे भरपेट रोटी दोगे।’ 

देश ने मुझे देर तक विद्रूपता से घूरा, फिर बोला, ‘तुम क्या समझते हो कि मैं तुम्हारे धक्के से आगे बढ़ रहा हूं। नेता केवल अपने कुनबे को धक्का लगा रहे हैं। रही जनता की बात, तो हे चिरकुट लेखक, तुमने वह कहावत तो सुनी होगी कि क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा। ’

मैंने कहा, ‘मेरे भारत महान, बस आपसे प्रार्थना है कि जरा तेज गति से आगे बढ़ें।’ देश बोला, ‘कैसे बढ़ें भैया, वह सामने देखो एक रथ यात्रा आ रही है।’

मैंने कहा, ‘रथ यात्रा निकल गई, अब क्यों नहीं बढ़ रहे?’ 

देश बोला, ‘कैसे बढ़ें भैया, सामने अन्ना जी और खंडूरी जी लोकपाल पर जश्न मना रहे हैं। उनकी बाईं ओर गली में कुछ लोग सरकार का पुतला जला रहे हैं। आप कह रहे हो कि इन्हें देखे बिना आगे बढ़ जाऊं। मुझे तो आपके लेखक होने पर शक हो रहा है।’

मैंने फिर देश को नहीं टोका। वह कभी पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में मरे बच्चों को श्रद्धांजलि देने रुक जाता है, तो कभी आत्महत्या से मरे किसानों के लिए। कभी किसी युवराज के रोड शो के लिए रास्ता देने लगता है, तो कभी किसी ममता की उमड़ती ममता से प्रभावित हो जाता है। कभी किसी संत के ऐश्वर्य को देखकर ठगा-सा रह जाता है, तो कभी किसी नेता के बचकाने बयान सुनकर खड़ा हो जाता है।

Monday 12 September 2011

मुद्दा: कब तक सहेंगे हम!

मुद्दा: कब तक सहेंगे हम!


विस्फोट से दहली दिल्लीअमेरिका और भारत। एक वर्तमान महाशक्ति तो दूसरा भविष्य की महाशक्ति। एक सबसे पुराना लोकतंत्र तो दूसरा सबसे बड़ा लोकतंत्र। दोनों ही आतंकवाद से पीड़ित। लेकिन.. दुनिया के दो छोर पर अपनी भौगोलिक स्थिति वाले इन देशों का आतंक से निपटने की रणनीति में जमीन-आसमान का अंतर है। अमेरिका का रुख जहां अति आक्रामक है, वहीं भारत का लचर रवैया बार-बार उसे लहूलुहान कर रहा है। अमेरिका पर हुए सबसे बड़े आतंकी हमले 9/11 को आज 10 साल हो रहे हैं। उसकी पहली चूक आखिरी साबित हुई।
11 सितंबर के हमले के बाद अमेरिका ने अपनी सुरक्षा इतनी पुख्ता कर ली कि पिछले दस साल में कोई आतंकी संगठन वहां हमले की हिमाकत नहीं कर सका।
भारत में इसी समयावधि में आतंकियों ने करीब तीन दर्जन बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया। हर आतंकी हमले के बाद हमने नीति एवं रणनीति को धारदार बनाने की कवायद की। नतीजा वही ढाक के तीन पात। आज भी हम आतंकवाद के भुक्तभोगी बने हुए हैं। अब देश के सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्र में स्थित दिल्ली हाई कोर्ट को आतंकियों ने निशाना बना डाला।
लगता है कि हमारी नीति और नियति आतंकियों में खौफ पैदा करने में नाकाम रहे हैं। हम आसान निशाना बने हुए हैं। घटना के बाद जांच एजेंसिया लकीर पीटती नजर आती हैं। ऐसे में हर आदमी असुरक्षित महसूस करने लगा है। घर से निकलने के बाद सही-सलामत वापस आना सौभाग्य समझा जाने लगा है। कब निकलेगा हमारा यह डर?कब तक आतंक सहते रहेंगे हम? 9/11 की दसवीं बरसी पर अमेरिका में भयमुक्त जीवन और हर साल 9/11 झेल रहे भारत में आतंक के साए में जीने का अभिशाप आज बड़ा मुद्दा है।
"लोगों की सुरक्षा देश का काम"
आतंकवाद की चुनौती का सामना करने में हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति केवल छलावा एवं धोखा देने की एक कोशिश ही साबित हुई है। दरअसल इनका उद्देश्य कभी भी व्यवहारिक तरीकों का इस्तेमाल कर जमीनी हकीकत की परिधि के भीतर समस्या को सुलझाना रहा ही नहीं। इसकी जगह हमेशा इनका प्रयाससमस्याओं एवं तथाकथित समाधान का राजनीतिक दोहन करने या स्पष्ट रूप से असफल होने की दशा में आलोचनाओं का मुंह किसी दूसरी दिशा में मोड़ने में रहा है।
इसी सिलसिले में दिल्ली हाई कोर्ट बम धमाके की घटना भी कोई अपवाद नहीं है। गृह मंत्री पी चिदंबरम ने तत्काल बाद असफलता का जिम्मा दिल्ली पुलिस के ऊपर मढ़ दिया। हालांकि गृह मंत्री मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद से आधिकारिक तौर पर कहते रहे हैं कि सभी शहरों पर आतंकी खतरा बरकरार है। उसके बाद, वह कैसे यह कह सकते हैं कि दिल्ली हाई कोर्ट पर आतंकी हमला दिल्ली पुलिस की असफलता का नतीजा है? जब दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के प्रत्यक्ष नियंत्रण में है। ऐसे में उसकी असफलता एक तरह से गृह मंत्रालय की नाकामी की ओर इशारा करती है।
सरकार के पैरोकार कह रहे हैं कि आतंकवाद को रोकने के लिए 'नागरिकों' को भी अपने दायित्वों का निर्वहन करना होगा। साथ में यह तर्क भी है कि दिल्ली में आतंक का खतरा इसलिए भी बढ़ा क्योंकि दिल्ली में अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान सुरक्षा एजेंसियां उस तरफ व्यस्त रहीं। जबकि आलोचक सरकार के साथ पूरे राजनीतिक तंत्र को लपेटते हुए कह रहे हैं कि सुरक्षा एजेंसियों का एक बड़ा हिस्सा इन माननीयों की सुरक्षा में ही लगा हुआ है। ऐसे में आम जनता को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है।
दरअसल ये सारे (कु)तर्क बेबुनियाद हैं। आतंकवाद से लड़ना जनता की ड्यूटी नहीं है। हालांकि सुरक्षा एजेंसियां उनसे सहयोग की अपेक्षा रख सकती हैं। यह सहयोग भी तभी अपेक्षित होता है जब लोगों को पुलिस पर पर्याप्त भरोसा हो। किसी भी दशा में यह राज्य का पहला कर्तव्य है कि वह अपने लोगों की रक्षा करे। राज्य अपनी नाकामी के लिए अंशमात्र भी जनता को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता। इसके साथ ही यह तर्क भी निराधार है कि सुरक्षा एजेंसियां को एक साथ आतंक, जनता की सुरक्षा, जन विरोध जैसी समस्याओं से जूझने के कारण दिक्कतें पेश आती हैं। वास्तविकता यह है कि एजेंसियों को आतंक से आमजन की हिफाजत करने के साथ वीवीआइपी की सुरक्षा और जन आंदोलनों की सुरक्षा एक ही वक्त में करनी होगी। इसमें कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी।
हमारी विफलता का सबसे प्रमुख कारण यह है कि हमने बड़े-बड़े बजट वाली कई जांच एजेंसियों को अस्तित्व में ला दिया है। राष्ट्रीय खुफिया एजेंसी, एनसीटीसी, नेटग्रिड, एनएसजी सुरक्षा एजेंसियों के कारण एक तरह की भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। इनके बीच तालमेल की कमी, खींचतान की वजह से सही नतीजे देने में ये विफल साबित हो रही हैं। इसके बजाय थाना, पुलिस कांस्टेबल, फील्ड में मौजूद खुफिया अधिकारियों जैसे बुनियादी स्तर पर ध्यान देने की बजाय उनकी उपेक्षा कर दी जाती है। आज जिसे सबसे ज्यादा मजबूत होने की जरूरत है।
यदि हम आतंकवाद को लड़कर हराना चाहते हैं तो हमें पुलिस और खुफिया तंत्र की ऐसी व्यवस्था विकसित करनी होगी जो पेशेवर, सक्षम और जवाबदेह हो। भारत, एक उभरती हुई महाशक्ति है तो इसकी सुरक्षा एजेंसियां भी वैश्विक मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए। हालांकि आधुनिक सुरक्षा तंत्र में तकनीकी इनपुट बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ ही अगर प्रशिक्षित, कुशल पुलिसमैन और फील्ड खुफिया अधिकारी भी हों तो इनके मिश्रण से बेहद अहम नतीजे निकल सकते हैं।

जनमत
क्या अमेरिका की तरह हमें भी आतंक को मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए?
हां 99%
नही 1%
क्या आतंकवाद के खिलाफ सख्त कदम उठाने को लेकर राजनीति की जा रही है?
हां 80%
नहीं 20%